सत्य सिद्धान्त

सत्य सिद्धान्त

शार्दूल विक्रीडित छन्द । शैवाः पाशुपता महाव्रतधराः काली मुखा जङ्गमाः शाक्ताः कौल कुलार्चनादि निरताः कापालिकाः शाम्भवाः । येऽज्ञाः कृत्रिम मन्त्र तन्त्र निरताऽस्ते तत्त्वतो वञ्चिता- स्तेषामल्पमिहैकमेवहि फलं सत्यं न मोक्षः परः ॥ १॥ महान् व्रत को धारण करने वाले, पशुपति की उपासना करने वाले शैव, कालिका को मानने वाले जङ्गम, कुल परम्परा से चले आये हुए पूजन अर्चनादि मे प्रीति वाले शाक्त, शम्भु की उपासना करने वाले कापालिक और कृत्रिम शावरादि मन्त्र तन्त्रों में प्रीति वाले जो अज्ञानी वे सब ही तत्त्व ज्ञान से वञ्चित हुए हैं, उनको इस लोक में ही अल्प फल की प्राप्ति होती है, परम उत्कृष्टःकैवल्य मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, यह सत्य सिद्धान्त है । चार्वाकाश्चतुराः स्वधर्म निपुणा देहात्म वादे रता नाना तर्क कुतर्क भाव सहिता निष्ठा परास्तार्किकाः । वेदार्थ प्रतिपादकाः सुकुशलाः कर्तेति नैयायिका- स्तेषां स्वल्प फलं भवेत्तु सततं सत्यं न मोक्षः परः ॥ २॥ ``देह ही आत्मा है'' ऐसा वाद करने वाले स्वधर्म में निपुण ऐसे चार्वाक, सद्धेतु दर्शन आदि जो अनेक तर्क और व्यभि- चारी हेतु दर्शन रूप जो अनेक कुतर्क हैं, उनके विवेचन के अनुसार सप्त पदार्थो की भावना और निष्ठा वाले तर्क शास्त्र के कर्ता कणाद मुनि और वेद प्रतिपाद्यार्थ जो ईश्वर उसके प्रति- पादन करने में कुशल और जीव को कर्ता कहने वाले जो गौतम उन सब को अपने-२ मत के अनुसार अनुष्ठान करने से थोडा फल प्राप्त होता है, कैवल्य मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, यह सत्य सिद्धान्त है ॥ २॥ कर्माकर्मविकर्म बोध जनकाः कर्मार्थ मीमांसकाः साङ्ख्यास्त्यागपराः सदा विविदिषा संन्यासैन स्नातकाः । योगाङ्गाष्टक बोधक प्रति भटाः पातञ्जला न्यायकाः योग ज्ञानमिदं प्रबोध जनकं सत्यं न मोक्षः परः ॥ ३॥ मीमांसक कर्म, अकर्म और विकर्म इन तीनों के बोध को कराने वाले कर्म परायण हैं, त्वं पदार्थ के बोध के निमित्त साङ्ख्य शास्त्र वाले त्याग परायण हैं, संन्यासई और ब्रह्मचारी ज्ञान के लिये विशेष इच्छा करने वाले हैं, न्याय कर्ता पातञ्जल अष्टाङ्ग योग के बोध कराने में शूरवीर हैं । यह योग का ज्ञान प्रबोध का देने वाला है, परन्तु उत्कृष्ट मोक्ष का देने वाला नहीं है, यह सत्य सिद्धान्त है ॥ ३॥ वेदान्ती बहु तर्ककर्कश मति श्चाद्वैत सम्बोधको नाना वाद विवादिनो न निपुणो विज्ञान बोधात्मकाः । कर्तारं प्रवदन्ति चैव यवनाः पापे रता निर्दया । विप्रा वेद रताः समत्व विरताः सत्यं न मोक्षः परः ॥ ४॥ अद्वैत को बोधन करने वाले, तर्क करने में तीव्र बुद्धि वाले, नाना प्रकार के वाद विवाद करने में निपुण, आत्मा के बोधक आभास रूप विज्ञान वाले वेदान्ती, आत्मा को कर्ता भोक्ता कहने वाले, पाप में प्रेम वाले अत्यन्त निर्दयी यवन और वेद में प्रीति वाले समानता से रहित ब्राह्मण परम मोक्ष को प्राप्त नहीं होते, यह सत्य सिद्धान्त है ॥ ४॥ नाना चित्रविचित्र वेष शरणा नाना मते भ्रामका नाना तीर्थ निषेवका जपपरा मौन्य स्थिता नित्यशः । सर्वे चोदर सेवकास्त्वभिमता वादे विवादे रताः ज्ञानान्मुक्तिरिदं वदन्ति मुनय- स्तत्प्राप्य सा दुर्लभा ॥ ५॥ नाना प्रकारके चित्र विचित्र वेष धारण करने वाले, नाना मतों के बीच में भ्रमण करने वाले, नाना तीर्थों का निरन्तर सेवन करने वाले, हमेशा मौन रखने वाले, अपनी बुद्धि के अनुसार वाद विवाद मे प्रीति करने वाले; ये सब पेट के ही चाकर हैं, परन्तु ``ज्ञान करके ही मुक्ति होती है'' यह कहने वाले ब्रह्मनिष्ठ मुनि की प्राप्ति ही अत्यन्त दुर्लभ है, क्योङ्कि ऐसा ज्ञान अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त होता है ॥ ५॥ इति सत्य सिद्धान्त । Proofread by Aruna Narayanan narayanan.aruna at gmail.com
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