हिमाद्रिवैभवं केदारनाथः
(ख। श्रीकेदारनाथः)
(गीतिका) (मात्रासमक जाति)
जय जय जय हे जय केदार !
भारत सुषमा-गरिमाऽऽधार !
कीर्ति सुधा ते प्रतिपल-हृद्या,
मानस-पाप-नाश-सुमनोज्ञा ॥ जय०॥
हैम-मण्डितो हिम गिरि-शोभं
सतत-हिमानी-सुषमा-हृद्यम् ।
हिमतति-पूतं-मनोरम-वेषं,
हैम-शान्ति-हृत-मानस-क्लेशम् ॥ जय०॥
देवागारमिदं सुपवित्रं
शैव-धर्म कृत-मूर्ति-गुणोच्चम् ।
शैव-मन्दिराऽऽहृत जन-सङ्घं
केदाराऽञ्चित-पावन-धामम् ॥ जय०॥
शिल्पकला-गरिमोच्चय-पूर्णं,
सुन्दर-सुघटित हृषदभिरामम् ।
स्वर्ण शृङ्ग-मुकुटाञ्चित-शोभं,
भक्ति-भावना-हृत-जन-क्षोभम् ॥ जय०॥
जाति-भेद-सदूषण-हीनं,
मानस-मान मोद-मति-लीनम् ।
आधि-व्याधि-भय-नाश-मनोज्ञं
शान्ति-सुधा सञ्चार सुहृद्यम् ॥ जय०॥
मन्दाकिनि-जल-वेग-सुरम्यं
हैम-प्रपात-पात-अभिनन्द्यम् ।
गान्धि-सरोवर शोभा-रम्यं
मन्दाकिनि-जनिभूरतिहृद्यम् ॥ जय०॥
मन्दाकिनि द्रोणो शुभ-रम्यं
देवदारु-सरलै- रतिहृद्यं, ।
गौरीकुण्डं मध्ये रम्यं
तप्तजलैर्हरते जन-श्रान्तिम् ॥ जय०॥
पुष्पाणां परितो रुचिराभा
हरति श्रमं वितनोति मुदं च ।
शाट्वल शोभित पूत-वनालि,
सरिता तुड्ग-तरङ्ग-मनोज्ञम् ॥ जय०॥
शान्ति-मुक्ति-सन्देश-प्रदाता,
आत्मिक-शक्ति-भक्ति-मति-दाता ।
ज्ञान भानु हृत-भव-भय-शोकं,
शान्ति-सुधा-हृत-मानस-तापम् ॥ जय०॥
विश्व शान्ति-सन्देश-सुशोभं,
विश्वप्रेम शुभ भाव-प्रणुन्नः ।
जगति ज्ञान-ज्योतिर् वितनोतु
हरतु पाप भवताप-समूहम् ॥ जय०॥
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