गीता-गीतिका
श्रीमद्-भगवद्-गीता,
प्रहर्षिणीयं
महर्षि-कृष्ण-
द्वैपायन-प्रणीता ।
श्रीमद्-भगवद्-गीता ।
गीता, गीता, गीता ॥ (ध्रुवम्)॥
पुण्या श्रीहरि-पार्थ-सनाथा,
निर्भर-गर्भित- गौरव-गाथा ।
महाभारते
विश्व-हित-रते
यस्या वाणी सदा यथार्था ।
सुमेधसा समधीता,
श्रीमद्-भगवद्-गीता ।
गीता, गीता, गीता ॥ १॥
सकलोपनिषद् गाभी सुभगा,
प्रभु-गोविन्दे दोग्धरि शुभगा ।
निवसति वत्सः
पार्थोऽनलसः
भोक्तृ-सुधीभि-र्धृतापवर्गा ।
सुदुग्ध-रूपा पीता,
श्रीमद्-भगवद्-गीता ।
गीता, गीता, गीता ॥ २॥
कर्म कुरु त्वं स्वधर्म-सक्तः,
देहि गुरुत्वं कर्मणि शक्तः ।
विवेक-बुद्ध्या
मानस-शुद्ध्या
भुवि भव सुतरां विभु-पद-भक्तः ।
सम-दर्शितोष्ण-शीता,
श्रीमद्-भगवद्-गीता ।
गीता, गीता, गीता ॥ ३॥
समुपदिशति या मर-संसारे,
मानव-मानं सुव्यवहारे ।
तत्त्वं सत्त्वं
याति महत्त्वं
ज्ञाने भक्तौ कर्माचारे ।
आत्म-विचार-पुनीता,
श्रीमद्-भगवद्-गीता ।
गीता, गीता, गीता ॥ ४॥
कलयति सकलं कलि-मल-नाशम्,
तिरयति मर्त्त्ये संसृति-पाशम् ।
सुविहित-योगा
निरस्त-भोगा
वितरति दिव्यं हृदि प्रकाशम् ।
ब्रह्ममयी सम्प्रीता,
श्रीमद्-भगवद्-गीता ।
गीता, गीता, गीता ॥ ५॥
-- गीत-रचना : डाॅ हरेकृष्ण-मेहेरः
Copyright Dr.Harekrishna Meher