मध्वाचार्यमते श्रीब्रह्मसम्प्रदायसिद्धान्तः

मध्वाचार्यमते श्रीब्रह्मसम्प्रदायसिद्धान्तः

मध्वाचार्यमतश्चाथ द्वैतवादोऽभिधीयते । तत्र सर्वोत्तमं तत्त्वं भगवान् विष्णुरेव हि ॥ १॥ श्रीमध्वाचार्य का सिद्धान्त द्वैतवाद के नाम से जाना जाता है । उस मत में सर्वोत्कृष्ट तत्त्व भगवान् श्रीहरि विष्णु ही हैं । देशकालानवच्छिन्नः सृष्टिस्थित्यन्तकारकः । सविशेषः स्वतन्त्रोऽथ कल्याणगुणसागरः ॥ २॥ वे भगवान् देश-कालादि के बन्धनों से मुक्त, जगत् की सृष्टि, पालन तथा संहार करने वाले, सविशेष (विशेषणों से युक्त), स्वतन्त्र व कल्याणकारी गुणों के समुद्र- सच्चिदानन्दरूपश्च सर्वज्ञः सर्वशक्तिकः । जगतोऽस्य निमित्तत्वं मतं चेशस्य केवलम् ॥ ३॥ सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् हैं । (माध्व मतानुसार-) ईश्वर इस जगत् के केवल निमित्त कारण माने गये हैं । प्रकृतिस्तन्मते विश्वस्योपादानतया मता । ईश्वरानुचरो जीवः सच्चिदानन्दरूपवान् ॥ ४॥ श्रीमध्वाचार्य के मत में प्रकृति इस जगत् की उपादान कारण मानी गयी है । (ईश्वर का लक्षण कहने के पश्चात् अब जीव का लक्षण कहते हैं-) जीव ईश्वर का अनुचर अर्थात् दास है तथा ईश्वर की ही तरह वह भी सच्चिदानन्दस्वरूप है । अणुर्बद्धस्तथाऽनादिकालान्मायाविमोहितः । अज्ञत्वादिकधर्माणामाश्रयः परवाँस्तथा ॥ ५॥ वह जीव अणु परिमाण वाला, बद्ध, अनादि काल से माया से मोहित, अज्ञत्वादिक अनेक धर्मों से युक्त तथा पराधीन है । अस्वतन्त्रमथो चेशनियाम्यं तत् तथा जगत् । वास्तविको मतो भेदः पञ्चधा स उदीरितः ॥ ६॥ परतन्त्र होने से जीव तथा जगत् ईश्वर से नियम्य हैं अर्थात् ईश्वर ही सभी जीवों तथा इस संसार का नियामक है । ( अब भेदों के सम्बन्ध में बतलाते हैं-) माध्व मत में भेद को वास्तविक माना गया है तथा वह पाँच प्रकार का कहा गया है- जीवेशयोस्तथा जीवाज्जडस्य चेश्वरादपि । जीवानाञ्च मिथो भेदो जडानां च परस्परम् ॥ ७॥ १. जीव और ईश्वर का भेद, २. जीव से जड़का भेद, ३. जड़का ईश्वर से भेद, ४. जीवों का परस्पर का भेद तथा ५. जड़ों का परस्पर का भेद । भेदावबोधतो विष्णुस्तद्गुणोत्कर्षशेमुषी । ततश्चाराध्य विष्णुं तत्प्रसादेनाथ मुच्यते ॥ ८॥ सारे भेदों को जानकर श्रीहरि विष्णु के गुणों के उत्कर्ष से युक्त बुद्धि वाला होकर; भगवान् विष्णु की आराधना करके उन कृपालु भगवान् की कृपा से व्यक्ति भव बन्धन से मुक्त हो जाता है । दिव्यलोकं समासाद्य स्वरूपं प्राप्यते तथा । तारतम्यं च जीवेषु मुक्तावप्युररीकृतम् ॥ ९॥ दिव्य (वैकुण्ठ) लोक में जाकर उन्हीं के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । मुक्ति में भी जीवों में तारतम्य स्वीकार किया गया है । मोक्षस्य साधनं भक्तिः सा च निष्कामभावतः । वेदाभ्यासोऽविलासित्वं तथा चेन्द्रियसंयमः ॥ १०॥ मोक्षप्राप्ति का (मुख्य) साधन भक्ति है और वह निष्काम भाव से होनी चाहिये । तथा वेदों का अभ्यास, भोग विलास का परित्याग तथा इन्द्रियों का संयम- आशाभयपरित्याग ईशायात्मसमर्पणम् । सत्या हितपरा वाणी हरेर्दास्ये स्पृहा सदा ॥ ११॥ संसार की आशा तथा भय का परित्याग, ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण, सत्य और हित से परिपूर्ण वाणी, श्रीहरि के दास्य की सदा इच्छा- दया दानं प्रपन्नस्य विपन्नस्य च रक्षणम् । हरौ गुरौ तथा शास्त्रे श्रद्धा दम्भविवर्जिता ॥ १२॥ प्रपन्न (शरणागत भक्त) के प्रति दया, दान आदि और विपन्न (दुःखी) की रक्षा, श्रीहरि, श्रीगुरु और शास्त्र के प्रति दम्भ रहित सच्ची श्रद्धा- ये सब ईश्वर की प्राप्ति के साधन हैं ॥ ॥ इति पण्डितसम्राट् श्रीवैष्णवाचार्यप्रणीतं श्रीब्रह्मसम्प्रदायसिद्धान्तः सम्पूर्णः ॥ अनुवादक- आकाश पाण्डेय Encoded, proofread, and translated by Akash Pandeya
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% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Transliterated by     : Akash Pandeya
% Proofread by          : Akash Pandeya
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% Latest update         : December 8, 2023
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