अक्षरब्रह्मस्य विराट्स्वरुपम्

अक्षरब्रह्मस्य विराट्स्वरुपम्

माहेश्वरतन्त्रे ज्ञान खण्डे अक्षरब्रह्मस्य विराट्स्वरुपं अक्षरब्रह्म का विराट् स्वरूप विराट तस्य वपुः स्थूलं पञ्चधा तु समुद्भवम् । पातालं पादमूलेऽस्य पार्ष्णिदेशे रसातलम् ॥ १॥ उसका शरीर विराट् और स्थूल है जो पाँच गुना करके समुद्भूत है । उस विराट पुरुषके पैरके तलवेमें पाताल है, एड़ियाँ और (पंजे) रसातल हैं ॥ १ ॥ गुल्फे महातलं तस्य जङ्घयोश्च तलातलम् । जङ्घयोपरि सुतलं वितलं कट्युत्तरं प्रिये ॥ २॥ कटिमध्येऽतलमस्ति मर्त्यलोकोदरे तथा । पार्श्र्वदेशेभुवर्लोकस्तदूर्ध्वं च स्वरादयः ॥ ३॥ गुल्फ ( एड़ीकी ऊपरकी गाँठों में ) महातल उसकी जाँघों ( पिंडली ) में तलातल है । जङ्घाओंके ऊपर सुतल और हे प्रिये ! कटिके उत्तरमें वितल है । कटिके मध्यमें अतल और उदरमें मर्त्यलोक है । पीठमें भुवर्लोक है और उसके ऊपर 'स्वः' आदि लोक हैं ॥ २-३ ॥ ज्योर्तींष्यस्योरःस्थले च ग्रीवायां च महस्तथा ॥ ४॥ इसके वक्षस्थलमें स्वर्गलोक एवं ग्रीवामें महर्लोक हैं ॥ ४ ॥ वदने जनलोकोऽस्य तपोलोको ललाटके । सत्यलोको ब्रह्मरन्ध्रे बाह्वोरिन्द्रादयः सुराः ॥ ५॥ मुखमें जन लोक है और इनके ललाटमें तपोलोक है । इन विराट् पुरुषके ब्रह्मरन्ध्रमें ( शिरमें शिखाके पास जो 'ब्रह्मरन्ध्र' नामक महीन सा छिन्द्र होता है उसमें ) सत्यलोक है । इन्द्र आदि देवता इनकी भुजाएँ हैं ॥ ५ ॥ दिशः कर्णप्रदेशस्य शब्दस्तच्छ्रोत्रमध्यगः । नासयोरस्य नासत्यौ मुखे वह्निः समाश्रितः ॥ ६॥ दिशाऐं कान हैं । शब्द श्रोत्रेन्द्रिय है । इनकी दोनों नासाओंमें नासत्या-द्वय हैं और इनका मुख अग्नि है ॥ ६ ॥ सूर्योऽस्य चक्षुषि गतः पक्ष्मणि ह्यहनीशितुः । दंष्ट्रायां यमस्तस्य हास्ये माया महेश्वरि ॥ ७॥ इनकी आखें सूर्य हैं । रात और दिन इन प्रभुकी दोनों पलकें हैं । दंष्ट्रा (दाँतों) में यमराज हैं । हे महेश्वरि ! उनकी मधुर मुस्कान ही माया है ॥ ७ ॥ उत्तरोष्ठे स्थिता लज्जा लोभः स्यादधरोष्ठके । स्तनयोरस्य वै धर्मः पृष्ठेऽधर्मः समाश्रितः ॥ ८॥ लज्जा ऊपरके ओष्ठ और नीचेके ओष्ठ लोभ हैं । इनके दोनों स्तनोंमें धर्म और पृष्ठ भागमें अधर्म आश्रय करके रहता है ॥ ८ ॥ कुक्षिष्वस्य समुद्रा वै पर्वता ह्यस्थिसन्धिषु ॥ आपगा नाडिदेशस्था वृक्षा रोमपथि स्थिताः ॥ ९॥ इनकी कुक्षि समुद्र है इनके अस्थिकी सन्धियाँ अर्थात् जोड़ पर्वत हैं । नाड़ी प्रदेश नदियाँ हैं । रोमोंके पथ वृक्ष हैं ॥ ९ ॥ मेघाः केशेषु हृदये चन्द्रमाः परिकीर्तितः । इदं स्थूलशरीरं तु ब्रह्मणः परमात्मनः ॥ १०॥ केशोंमें मेघ हैं और हृदयमें चन्द्रमा कहे गये हैं । इस प्रकार विराट् पुरुष परब्रह्म परमात्मा का यह विशालकाय शरीर है ॥ १० ॥ इयत्तयाऽपरिच्छेद्यमन्तपारविवर्जितम् । लिङ्गं नारायणस्तस्य ह्यक्षरस्य चिदात्मनः ॥ ११॥ उस चिदात्मा अक्षररूप ब्रह्म का यह शरीर आदि और अन्त से रहित है एवं वही लिङ्ग है और वही नारायण है ॥ ११ ॥ हिरण्यगर्भ जगदीशितारं नारायणं यं प्रवदन्ति सन्तः । सर्वस्य धातारमनन्तमाद्यं प्रधानपुंसोरपि हेतुमीशम् ॥ १२॥ उसी विराट् पुरुष को सन्त लोग हिरण्यगर्भ, जगत्के ईश और नारायणके रूपमें कहा करते हैं । वह सभीकी सृष्टि करने वाले हैं, वह अनन्त हैं, प्रधान पुरुष से भी आद्य हैं । वह ईशके भी कारण हैं ॥ १२ ॥ तं सर्वकालावयवं पुराणं परात्परं योगिभिरीड्यपादम् । ब्रह्मेशविष्णुप्रमुखैकहेतुं यतः प्रवृत्तो निगमस्य पन्थाः ॥ १३॥ उन सभी कालोंके अवयव, पुराण पुरुष एवं परात्पर ब्रह्मके पैर योगियों द्वारा स्तुत हैं । वही विराट् पुरुष ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश आदि प्रमुख देवोंके भी कारण हैं तथा इन्हींसे वेद भी निकले हैं ॥ १३ ॥ तं देवदेवं जगतां शरण्यं नारायणं यस्य वदन्ति लिङ्गम् । यावन्न लिङ्गं प्रलयं प्रयाति स्थूलं वपुश्चापि न शान्तिमेति ॥ १४॥ उन देवोंके भी देव, जगत् को शरण प्रदान करने वाले, नारायण रूप जिस लिङ्ग (शरीर) की विद्वज्जन स्तुति किया करते हैं । जब तक उस विराट पुरुष का लिङ्ग शरीर प्रलय को प्राप्त नहीं होता तब तक उनका स्थूल शरीर भी शान्ति को नहीं प्राप्त करता है ॥ १४ ॥ ततः परं कारणमेव तस्य वपुः परस्यात्मन एव मोहः । यावद्विमोहः प्रशमं न याति न लिङ्गमुत्सीदति कार्यबद्धम् ॥ १५॥ जब तक उसका कारण रूप शरीर विद्यमान होता है तब तक मोह रहता है । और जब तक मोह का नाश नहीं होता तब तक कार्य से आबद्ध लिङ्ग शरीर का मोक्ष भी नहीं होता है ॥ १५ ॥ न कारणं तावदुपैति शान्तिं चराचरस्यापि च बीजभूतम् । यावन्महाकारणमम्बिके तत् न शान्तिमायाति च बीजबीजम् ॥ १६॥ चराचर जगत् का बीजभूत (विराट्पुरुषरूप) कारण भी तब तक शान्ति को नहीं प्राप्त करता है, हे अम्बिके ! जब तक बीज का भी बीजभूत महाकारण शान्ति को नहीं प्राप्त करता है ॥ १६ ॥ गुह्याद् गुहयतरं शास्त्रमिदमुक्तं तवानघे । न कस्याप्यग्रतो वाच्यं सत्यं सत्यं प्रियंवदे ॥ १७॥ हे अनघे ( निष्पाप ) ! इस प्रकार गुह्य से भी गुह्यतर इस रहस्य युक्त शास्त्र को मैंने तुमसे कहा । हे प्रियवादिनि ! इसे सच सच (यथावत्) किसीके समक्ष नहीं कहना चाहिए ॥ १७ ॥ न पद्मायै हरिः प्राह प्रार्थितोऽपि पुनः पुनः । तन्मयात्र तव स्नेहात्प्रकटीकृतमुच्चकैः ॥ १८॥ बारम्बार प्रार्थना करने पर भी भगवान विष्णु ने इस रहस्य को लक्ष्मी से नहीं कहा । उस रहस्य को मैंने तुम्हें स्नेह से प्रकट कर दिया ॥ १८ ॥ न गुहयायापि पुत्राय गणराजाय नन्दिने । सुगोपितमिदं भद्रे तव स्नेहादुदीरितम् ॥ १९॥ गणराज, रहस्य का गोपन करने वाले, पुत्र नन्दी से भी इसे मैंने छिपा रखा था जिसे, हे भद्रे ! तुम्हारे स्नेहके कारण, मैंने तुमसे कहा है ॥ १९ ॥ तस्माद्गोप्यतरं भद्रे वराङ्गमिव सर्वतः । इतीदं ते समाख्यातं किमन्यत्प्रष्टुमिच्छसि ॥ २०॥ इसलिए यह उसी तरह चारों ओर से गोपनीय है जैसे वराङ्गों (गोपनीय अंगो) का चारों ओर से गोपन किया जाता है । इस प्रकार तुमसे यह सब विषय अच्छे प्रकार से मैंने कह दिया है । अब और तुम क्या पूछना चाहती हो ?॥ २० ॥ इति श्रीनारदपङ्चरात्रे माहेश्वरतन्त्रे ज्ञानखण्डे अक्षरब्रह्मस्य विराट्स्वरुपवर्णनं सम्पूर्णम् । Verses 48-67 from Maheshvaratantra Jnanakhanda prathama paTalaM Encoded and proofread by Yogesh K Sharma yosharma at gmail.com
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% Transliterated by     : Yogesh K Sharma yosharma at gmail.com
% Proofread by          : Yogesh K Sharma yosharma at gmail.com
% Translated by         : Sudhakar Malaviya
% Description/comments  : Maheshwara Tantra Jnanakhanda prathama paTalaM Verses 48-67
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% Latest update         : May 27, 2019
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