श्रीविष्णुस्तुतिः अथवा श्रीजगन्नाथस्तुतिः
नमो मत्स्यकूर्मादिनानावतारैर्जगद्रक्षणायोद्यतायात्तिहर्त्रे ।
जगद्बन्धवे बन्धहर्त्रे च भर्त्रे जगद्विप्लवोपस्थितौ पालयित्रे ॥ १॥
हे भगवन् ! हे मत्स्य एवं कूर्म आदि नाना प्रकारके अवतारों को धारण
करके जगत्की रक्षाके लिए उद्यत रहकर सभीके दुःखों का नाश करने
वाले ! हे जगत्के बन्धु ! हे कर्म बन्धनोंके हर्ता ! हे भर्त्ता ! हे और
दारुण कष्टोंके उपस्थित होने पर जगत् का पालन करने वाले ! आपको
प्रणाम है ॥ १ ॥
यदा वेदपन्थास्त्वदीयः पुराणः प्रभज्येत पाखण्डचण्डोग्रवादैः ।
तदा देवदेवेश सत्त्वेन सत्त्वं वपुश्चारु निर्माय रक्षां विधत्से ॥ २॥
जब आपका पुरातन वैदिक [ सनातन ] धर्म उग्र पाखण्डियोंके द्वारा
छिन्न-भिन्न कर दिया जाता है तब आप, हे देवदेवेश, सत्त्व गुण से
सत्त्वमय सुन्दर शरीर धारण करके हम सबकी रक्षा करते हैं ॥
२ ॥
भूम्यम्बुतेजोनिलखात्मकं यत् ब्रह्माण्डमेतत्प्रविशन्निव त्वम् ।
चराचरं जीव इति प्रसिद्धिं गतोऽसि तस्मान्न भवत्परं यत् ॥ ३॥
भूमि, जल, अग्नि, वायु, और आकाश रूप जो ब्रह्माण्ड है वह सब तुम्हारेमें
मानो प्रविष्ट है। वस्तुतः समस्त चराचर जगत् और जीवके रूपमें आप
ही भासित होते हैं । इसलिए आपसे अलग कोई श्रेष्ठ तत्त्व नहीं है ॥
३ ॥
रक्षस्व नाथ लोकांस्त्वं तपसोग्रेण पद्मया।
दह्यमानान् गतानन्दान् रक्षितासीश्वरो यतः ॥ ४॥
अतः हे नाथ ! आप भगवती रमाके द्वारा किए गए उग्र तपस्या से जलने
वाले इन लोकोंकी रक्षा करें, क्योंकि आप ही इनकी रक्षा करनेमें समर्थ
हैं ॥ ९८ ॥
इति श्रीनारदपङ्चरात्रे माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे
देवगाणाप्रोक्ता श्रीविष्णुस्तुतिः समाप्ता ।
Verses 95-98 from Maheshvaratantra uttarakhanda tRRitIya paTalaM
Encoded and proofread by Yogesh K Sharma yosharma at gmail.com