श्रीकृष्णध्यानानि
श्रीकृष्णस्य प्रातः मध्याह्न सायं कालीन ध्यानानि
श्रीगणेशाय नमः ।
श्रीकृष्ण का प्रातःकालीन ध्यान
समुद्धूसरोरःस्थलेधेनुधूल्या
सुपुष्टाङ्गमष्टापदाकल्पदीप्तम् ।
कटीरस्थले चारु जङ्घान्तयुग्मं
पिनद्धं क्वणत् किङ्किणीजालदाम्ना ॥ १॥
हसन्तं हसत् बन्धु जीव प्रसून
प्रभापाणि पादाम्बुजोदार कान्त्या ।
दधानं करे दक्षिणे पायसान्नं
सुहैयङ्गवीनं तथा वाम हस्ते ॥ २॥
लसत् गोपगोपी गवां वृन्दमध्ये
सितं वास वाद्यैः सुरैरर्चिताङ्घ्रिम् ।
महीभार भूता मराराति यूथां
स्ततः पूतनादीन् निहन्तुं प्रवृत्तम् ॥ ३॥ (नारदपुराण ८०-७५-८०)
अर्थ-(एक सुन्दर उद्यान से घिरी हुई सुवर्णमयी भूमिपर रत्नमय मण्डप बना हुआ है । वहाँपर शोभायमान कल्पवृक्ष के नीचे स्थित रत्ननिर्मित कमलयुक्त पीठपर एक सुन्दर शिशु विराजमान हैं, जिनकी अङ्गकान्ति इन्द्रनीलमणि के समान श्याम है । उनके कालेकाले घुंघराले चिकने केश हैं, उनके दोनों गाल हिलते हुए स्वर्णमय कुण्डलों से अत्यन्त सुन्दर लगते हैं, उनकी नासिका बड़ी सुधर है, उस सुन्दर बालक के मुखारविन्दपर मन्द मुस्कान की अद्भुत छटा छिटक रही है । वह सोने के तारों में गुंथा और सोने से ही मढ़ा हुआ सुन्दर वधनखा, धारण करते हैं, जिसमें परम उज्ज्वल चमकीले रत्न जड़े हुए हैं । गोधूलि से धूसरित वक्षः स्थल में धारण किए हुए स्वर्णमय आभूषणों से उसकी दीप्ति बहुत बढ़ी हुई है, उनका एक-एक अंग अत्यन्त पुष्ट है, `उनकी दोनों पिण्डलियों का अन्तिम भाग अत्यन्त मनोहर है । उसने अपने कटिभाग से धुंघरूदार करधनी की लड़ी बांध रक्खी है' जिससे सुमधुर झनकार होती रहती है, खिले हुए (दुपहरिया) के फूल की अरुण प्रभा से युक्त करारविन्द और चरणारबिन्दों की उदार कान्ति से सुशोभित वह शिशु मन्द-मन्द हंस रहा है । उसने दाहिने हाथ में खीर और बायें हाथ में तुरन्त का निकाला हुआ माखन ले रक्खा है । ग्वालों गोप-सुन्दरियों और गौओं की मण्डली में स्थित होकर वह बड़ी शोभा पा रहा है । इन्द्र आदि देवता उसके चरणों की आराधना करते हैं वह पृथ्वी के भार भूत दैत्य समुदाय पूतना आदि का संहार करने में लगा है ।
इस प्रकार ध्यान करके एकाग्न चित्त हो भगवान् का पूजन करे, दही और गुड़ का नैवेद्य अर्पण करे, एक हजार मन्त्र का जप करे । मन्त्र- ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजन वल्लभाय स्वाहा ।
इसी प्रकार मध्याह्नकाल में नारदादि मुनिगणों और देवताओं से पूजित विशिष्ठ रूपधारी भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन करे । मध्याह्नकालीन ध्यान इस प्रकार करे ।
श्रीकृष्ण का मध्याह्नकालीन ध्यान
लसत् गोपगोपी गवांवृन्दमध्ये
स्थितंसान्द्र मेघप्रभं सुन्दराङ्गम् ।
शिखण्डीच्छदापीडमब्जायताक्षं
लसच्चिल्लिकं पूर्णचन्द्राननं च ॥ १॥
चलत् कुण्डलोल्लासि गण्डस्थल श्री
भरं सुन्दरं मन्दहासं सुनासम् ।
सुकार्तस्वराभाम्बरं दिव्यभूषं
क्वणत् किङ्किणीजालमात्तानुलेपम् ॥ २॥
वेणुन्धमन्तं स्वकरेदधानं
सव्येदरयष्टिमुदारवेषम् ।
दक्षे तथैवेप्सितदानदक्षं
ध्यात्त्वार्चयन्नन्दजमिन्दिराप्यैः ॥ ३॥ (नारदपुराण ८०-८३-८५)
अर्थ-भगवान् श्रीकृष्ण मेघ के समान श्याम तथा नीलमणि के तुल्य सुन्दर अङ्ग शोभा से युक्त हैं, शिर पर मोर मुकुट धारण किए हैं, कमल के सदृश नेत्र सुशोभित हो रहे हैं, गो गोपी और गोपों के मध्य में सुशोभित हैं, उनका मुख कमल के समान चिकना और पूर्णचन्द्र के समान सुन्दर है । भौंहों का मध्यभाग शोभायुक्त है, उनके कानों में मकराकृत कमनीय कुण्डलों से कपोलों की शोभा राशि को धारण करते हैं, सुन्दर नासिका है, सुन्दर हास्य हंस रहे हैं, तपाये हुए सोने के सामान पीला पीताम्बर धारण किए हैं, पैरों में घुंघरू धारण किये है, बजाते हुए चलते हैं । अङ्ग-अङ्ग में अनुलेपन किया है, दाहिने हाथ में वंशी लेकर बजा रहे हैं, बायें हाथ में छड़ी लिए हैं, अत्यन्त मनोहर वेष है, दाहिने हाथ से भक्तों को मनोवाञ्छित वस्तुओं को प्रदान करते हैं । लक्ष्मीपति भगवान् नन्दनन्दन श्रीकृष्ण का ध्यान करके पूजा करें ।
श्रीकृष्ण का सायं कालीन ध्यान
सायह्ने द्वारवत्यां तु चित्रोद्यानोपशोभिते ।
द्वयष्टसाहस्रसङ्ख्यातैः भवनैरूपमण्डिते ॥ १॥
हंससारससङ्कीर्णं कमलोत्पलशालिभिः ।
सरोभिर्निर्मलाम्भोभिः परीते भवनोत्तमे ॥ २॥
उद्यत्प्रद्योतनोद्योत द्युतौ श्रीमणिमण्डपे ।
हेमाम्भोजसमासीनं कृष्णं त्रैलोक्य मोहनम् ॥ ३॥
तेभ्यो मुनिभ्यः स्वन्धाम दिशन्तं परमक्षरम् ।
मुनिवृन्दैः परिवृतमात्मतत्त्व विनिर्णये ॥ ४॥
उन्निन्द्रेन्दिवर श्यामं पद्मपत्रायतेक्षणम् ।
स्निग्धकुन्तल सम्भिन्न किरीटवनमालिनम् ॥ ५॥
चारूप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ।
श्रीवत्सवक्षसंभ्राजत्कौस्तुभं सुमनोहरम् ॥ ६॥
काश्मीरकपिशोरस्कंपीतकौशेयवाससम् ।
हारकेयूरकटककटि सूत्रैरलङ्कृतम् ॥ ७॥
हृतविश्वम्भराभूरि भारंमुदितमानसम् ।
शङ्खचक्रगदापद्म राजद्भुजचतुष्टयम् ॥ ८॥ (नारदपुराण ५०-८०-९२)
अर्थ-इस प्रकार सायं काल में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारिकापुरी में एक सुन्दर भवन के भीतर विराजमान हैं । वह श्रेष्ठ भवन सोलह हजार गृहों से अलंकृत हैं । उसके चारोंओर निर्मल जल वाले सरोवर सुशोभित हैं । हंस सारस आदि पक्षियों से व्याप्त कमल और उत्पल आदि पुष्प उन सरोवरों की शोभा बढ़ाते हैं उक्त भवनों में एक शोभा सम्पन्न मणिमय मण्डप है । जो उदय कालीन सूर्यदेव के समान अरुण प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है । उस मण्डप के भीतर सुवर्णमय कमल की आकृति का सुन्दर सिंहासन है । जिस पर त्रिभुवनमोहन श्रीकृष्ण बैठे हैं । उनसे आत्मतत्त्व का निर्णय कराने के लिए मुनियों के समुदाय ने उन्हें सब ओर से घेर रखा है । भगवान् श्यामसुन्दर उन मुनियों को अपने अविनाशी परमधाम का उपदेश दे रहे हैं ।
उनकी अङ्गकान्ति विकसित नीलकमल के समान श्याम हैं । दोनों नेत्र प्रफुल्ल कमल दल के समान विशाल है । सिर पर स्निग्ध अलकावलियों से संयुक्त सुन्दर किरीट सुशोभित है । गले में वनमाला शोभा पा रही है । प्रसन्न मुखारविन्द मनको मोह लेता है, कपोलों पर मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे हैं । वक्षस्थल में श्रीवत्सका चिह्न है, वहीं कौस्तुममणि अपनी प्रभाविखेररही है, उनका स्वरूप अत्यन्त मनोहर हैं, उनका वक्षस्थल केसर के अनुलेपन से सुनहली प्रभा धारण करता है ।
वे रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं विभिन्न अङ्गों में हार, वाजूवंद, कड़े और करधनी आदि आभूषण उन्हें अलंकृत कर रहे हैं । उन्होंने पृथ्वी का भारी भार उतार दिया है उनका हृदय परमानन्द से परिपूर्ण है, तथा उनके चारों हाथ शंख, चक्र, गदा, और पद्म से सुशोभित है ।
इस प्रकार ध्यान करे और पूजन करे,आवरणों की भी पूजा करे । विधि पूर्वक पूजन करके खीर का भोग लगावे दुग्ध में शक्कर मिश्रित जल को भावितकर तर्पण करे । उसके बाद मूल मन्त्र का १०८ बार जप करे दिन में एकबार होम करे, तत्पश्चात् स्तुति, नमस्कार, आत्म समर्पण, करे । समर्पण कर पुनः अपने हृदय कमल में स्थापित करे । इस प्रकार प्रतिदिन करने से सम्पूर्ण कामना प्राप्त कर अन्त में परमगति को प्राप्त करता है ।
मूल मन्त्र-
``ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा'' यह है ।
Encoded and proofread by Vishwesh GM