श्रीकृष्णस्तोत्रम्
पार्वत्युवाच -
भगवन् श्रोतुमिच्छामि यथा कृष्णः प्रसीदति ।
विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रभो ॥ १॥
पार्वती ने कहा -
हे भगवन ! हे प्रभो ! मैं यह पूँछना चाहती हूँ कि बिना जप,
बिना सेवा तथा बिना पूजाके भी कृष्ण कैसे प्रसन्न होते हैं ? ॥ १ ॥
यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदाधुना ।
अन्यथा देवदेवेश पुरुषार्थो न सिद्ध्यति ॥ २॥
जैसे कृष्ण प्रसन्न होंवे- उस उपाय को अब आप कहिए । नहीं तो,
हे देवदेवेश ! (मानवका मोक्षरूप) पुरुषार्थ नहीं सिद्ध होता
है ॥ २ ॥
शिव उवाच -
साधू पार्वति ते प्रश्नः सावधानतया शृणु! ।
विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रिये ॥ ३॥
यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदामि ते ।
जपसेवादिकं चापि विना स्तोत्रं न सिद्ध्यति ॥ ४॥
शिव ने कहा -
हे पार्वति ! तुम्हारा प्रश्न बहुत सुन्दर है । अब इसे सावधान
होकर सुनो । बिना जपके, बिना उनकी सेवाके तथा बिना पूजाके भी,
हे प्रिये ! जैसे कृष्ण प्रसन्न होवें उस उपाय को मैं अब कहता
हूँ । जप और सेवा आदि भी बिना स्तोत्रके सिद्ध नहीं होते
हैं ॥ ३-४ ॥
कीर्तिप्रियो हि भगवान्वरात्मा पुरुषोत्तमः ।
जपस्तन्मयतासिद्ध्यै सेवा स्वाचाररूपिणी ॥ ५॥
भगवान परमात्मा पुरुषोत्तम कीर्तिप्रिय (गुणसंकीर्तनसे प्रसन्न
होनेवाले) हैं । जप तो भगवानमें तन्मयताकी सिद्धिके लिए होता
है और सेवा स्वयंके आचरणके रूपवाली होती है ॥ ५ ॥
स्तुतिः प्रसादनकरी तस्मात्स्तोत्रं वदामि ते ।
सुधाम्भोनिधिमध्यस्थे रत्नद्वीपे मनोहरे ॥ ६॥
नवखण्डात्मके तत्र नवरत्नविभूषिते ।
तन्मध्ये चिन्तयेद्रम्यं मणिगृहमनुत्तमम् ॥ ७॥
भगवान्की स्तुति उन्हें प्रसन्न करनेवाली होती है । अतः उनके स्तोत्र
को मैं तुमसे कहता हूँ । सुधा-समुद्रके मध्यमें मनोहर
रत्नद्वीप पर नव रत्नसे विभूषित नव खण्डात्मक पीठ है ।
उस पीठके मध्यमें उत्तमोत्तम एवं रम्य 'मणिगृह'का चिन्तन
करना चाहिए ॥ ६-७ ॥
परितो वनमालाभिः ललिताभिः विराजिते ।
तत्र सञ्चिन्तयेच्चारु कुटिटमं सुमनोहरम् ॥ ८॥
चतुःषष्टया मणिस्तम्भैश्वतुदिक्ष विराजितम् ।
तव सिंहासने ध्यायेत्कृष्णं कमललोचनम् ॥ ९॥
चारो ओर ललित वनमालाओंसे शोभायमान सिंहासन पर आसीन भगवान्
कमललोचन कृष्णका ध्यान करना चाहिए । उस सिंहासनका भी
ध्यान करना चाहिए जो सिंहासन सुमनोहर एवं चारू फर्शवाला
है और जो चारों ओर दिशाओंमें चौसठ मणिनिर्मित स्तम्भों से
जगमगा रहा है ॥ ८-९ ॥
अनर्घ्यरत्नजटितमुकुटोज्वलकुण्डलम् ।
सुस्मितं सुमुखाम्भोजं सखीवृन्दनिषेवितम् ॥ १०॥
स्वामिन्याश्लिष्टबामाङ्गं परमानन्दविग्रहम् ।
एवं ध्यात्वा ततः स्तोत्रं पठेत्सुविजितेन्द्रियः ॥ ११॥
भगवान कृष्णका मुकुट चमचमाता हुआ और कुण्डल अनर्घ्य रत्नों
से जटित है । उनका मुखकमल सुन्दर मुस्कानसे युक्त तथा सखी
वृन्दसे सेवित है । उनका परमानन्द विग्रह वाम भागमें स्वामिनी
(राधा)से संश्लिष्ट है । उस विग्रहका ध्यान करके जितेन्द्रिय
साधक को उनके स्तोत्रका पाठ करना चाहिए ॥ १०-११ ॥
अथ स्तोत्रम् ।
कृष्णं कमलपत्राक्षं सच्चिदानन्दविग्रहम् ।
सखीयुथान्तरचरं प्रणमामि परात्परम् ॥ १२॥
सत्, चित् एवं आनन्दस्वरूप, कमलके पत्रके समान नेत्रोंवाले
तथा सखीसमूहमें विचरण करनेवाले परात्पर कृष्ण को मेरा
प्रणाम है ॥ १२ ॥
शृङ्गाररसरूपाय परिपूर्णसुखात्मने ।
राजीवारुणनेत्राय कोटिकन्दर्परूपिणे ॥ १३॥
शृंगाररसरूपवाले, परिपूर्ण सुखवाले, लाल कमलके समान
अरुण नेत्रवाले तथा कोटिकामदेव स्वरूप कृष्ण को मेरा नमस्कार
है ॥ १३ ॥
वेदाद्यगमरूपाय वेदवेद्यस्वरूपिणे ।
अवाङ्मनसविषयनिजलीलाप्रवर्त्तिने ॥ १४॥
वेद आदि आगमरूपवाले, वेदसे ही जाने जानेवाले, अन्तर मनके
विषय तथा निज लीलाका स्वयं प्रवर्तन करनेवाले कृष्ण को
नमस्कार है ॥ १४ ॥
नमः शुद्धाय पूर्णाय निरस्तगुणवृत्तये ।
अखण्डाय निरंशाय निरावरणरूपिणे ॥ १५॥
शुद्ध, पूर्ण, गुणोंकी वृत्तिसे निरस्त, अखण्ड, निरंश तथा
आवरण रहितरूपवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १५ ॥
संयोगविप्रलम्भाख्यभेदभावमहाब्धये ।
सदंशविश्वरूपाय चिदंशाक्षररूपिणे ॥ १६॥
संयोग एवं विप्रलम्भ नामक शृंगाररसके भेदोंके भाव
के महासमुद्र, सत् अंशसे विश्वस्वरूप और चित् अंशसे युक्त
अक्षररूपवाले (नित्य) कृष्ण को नमस्कार है ॥ १६ ॥
आनन्दांशस्वरूपाय सच्चिदानन्दरूपिणे ।
मर्यादातीतरूपाय निराधाराय साक्षिणे ॥ १७॥
आनन्दके अंशके स्वरूपवाले, इस प्रकार सत्, चित् तथा आनन्द
स्वरूपवाले, मर्यादासे भी अधिकरूपवाले, निराधार एवं (सर्व
कार्यके) साक्षी कृष्ण को नमस्कार है ॥ १७ ॥
मायाप्रपञ्चदूराय नीलाचलविहारिणे ।
माणिक्यपुष्परागाद्रिलीलाखेलप्रवर्त्तिने ॥ १८॥
मायाप्रपञ्च (की परिधि)से दूर रहनेवाले, नीलाचल (जगन्नाथ
पुरी)में विहार करनेवाले तथा माणिक्य एवं पुष्परागके अद्रि की
लीला आदि खेलों को करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १८ ॥
चिदन्तर्यामिरूपाय ब्रह्मानन्दस्वरूपिणे ।
प्रमाणपथदूराय प्रमाणाग्राह्यरूपिणे ॥ १९॥
चित् रूपसे अन्तरात्मामें रहनेवाले, ब्रह्मानन्द स्वरूप,
प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे न जाने जानेवाले, अतः अनुमान आदि प्रमाण
पथसे विज्ञेय कृष्ण को नमस्कार है ॥ १९ ॥
मायाकालुष्यहीनाय नमः कृष्णाय शम्भवे ।
क्षरायाक्षररूपाय क्षराक्षरविलक्षणे ॥ २०॥
मायाकी कालिमासे विहीन, कल्याण करनेवाले कृष्ण को नमस्कार
हैं । क्षर (अनित्य) और अक्षर (नित्य) स्वरूपवाले तथा क्षर
एवं अक्षरसे भी विलक्षण (गुणातीत एवं अनन्त) स्वरूपवाले
कृष्ण को नमस्कार है ॥ २० ॥
तुरीयातीतरूपाय नमः पुरुषरूपिणे ।
महाकामस्वरूपाय कामतत्त्वार्थवेदिने ॥ २१॥
तुरीयसे अतीत रूपवाले एवं पुरुष रूपवाले कृष्ण को नमस्कार
है । महान काम स्वरूपवाले एवं काम तत्त्वके अर्थके ज्ञाता
कृष्ण को नमस्कार है ॥ २१ ॥
दशलीलाविहाराय सप्ततीर्थविहारिणे ।
विहाररसपूर्णाय नमस्तुभ्यं कृपानिधे ॥ २२॥
दशावताररूप लीलामें विहार करनेवाले तथा (मथुराके जमुना,
जन्मभूमि व्रज आदि) सप्ततीर्थोंमें विचरण करनेवाले, (लीला)
विहारके रससे पूर्ण और तुम कृपाके निधान कृष्ण को नमस्कार
है ॥ २२ ॥
विरहानलसन्तप्त भक्तचित्तोदयाय च ।
आविष्कृतनिजानन्दविफलीकृतमुक्तये ॥ २३॥
(कृष्णके) विरहकी अग्निसे संतप्त तथा भक्तके चित्तमें
प्राणका संचार करनेवाले और अपने मुक्ति को विफल करनेके लिए
आनन्द को स्वयं प्रकट करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २३ ॥
द्वैताद्वैत महामोहतमःपटलपाटिने ।
जगदुत्पत्तिविलय साक्षिणेऽविकृताय च ॥ २४॥
(माया एवं ब्रह्मरूप से) द्वैत तथा (ब्रह्मरूप से) अद्वैत
रूपसे महा मोहके अन्धकार पटल को समाप्त कर देनेवाले,
जगत्की उत्पत्ति और उसके विलयके साक्षी एवं अविकृत कृष्ण
को नमस्कार है ॥ २४ ॥
ईश्वराय निरीशाय निरस्ताखिलकर्मणे ।
संसारध्वान्तसूर्याय पूतनाप्राणहारिणे ॥ २५॥
ईश्वर, ईशविहीन, समस्त कर्मसे रहित, संसारके अन्धकार को
नष्ट करनेके लिए सूर्यरूप तथा पूतनाके प्राणका हरण कर
लेनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २५ ॥
रासलीलाविलासोर्मिपूरिताक्षरचेतसे ।
स्वामिनीनयनाम्भोजभावभेदकवेदिने ॥ २६॥
रास लीलाके विलासरूप समुद्रकी लहरसे पूरित होकर भी अक्षर
चित्तवाले, स्वामिनी राधाके नयन कमलकी भावभङ्गिमाके एक
मात्र ज्ञाता कृष्ण को नमस्कार है ॥ २६ ॥
केवलानन्दरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे ।
स्वामिनीहृदयानन्दकन्दलाय तदात्मने ॥ २७॥
मात्र मानन्दरूपवाले सृष्टि कर्ता तथा स्वामिनी राधाके
हृदयानन्दके दाता एवं तद्प कृष्णके लिए नमस्कार है ॥ २७ ॥
संसारारण्यवीथीषु परिभ्रान्तात्मनेकधा ।
पाहि मां कृपया नाथ त्वद्वियोगाधिदुःखिताम् ॥ २८॥
संसाररूपी अरण्यकी गलियोंमें अनेकरूपसे विचरण करनेवाले
एवं आपके वियोगसे दुखित, हे नाथ ! आप कृपया मेरी रक्षा
कीजिए ॥ २८ ॥
त्वमेव मातृपित्रादिबन्धुवर्गादयश्च ये ।
विद्या वित्तं कुलं शील त्वत्तो मे नास्ति किञ्चन ॥ २९॥
हे कृष्ण ! आप ही मेरे माता-पिता, बन्धु-बान्धव आदि सभी कुछ
हैं । विद्या, धन-सम्पत्ति, कुल एवं शील आदि गुण आप ही हैं ।
आपको छोड़कर मेरा इस संसारमें कुछ भी नहीं है ॥ २९ ॥
यथा दारुमयी योषिच्चेष्टते शिल्पिशिक्षया ।
अस्वतन्त्रा त्वया नाथ तथाहं विचरामि भोः ॥ ३०॥
जैसे लकड़ीकी बनी हुई नारी-कठपुतलीकी भाँति जैसे-जैसे डोरी
से उसे चलाया जाय चलती रहती है उसी तरह मैं भी हे नाथ !
आपके आश्रित हूँ आप जैसे मुझे प्रेरित करते हैं मैं वैसे
ही विचरण करता हूँ ॥ ३० ॥
सर्वसाधनहीनां मां धर्माचारपराङ्मुखाम् ।
पतितां भवपाथोधी परित्रातुं त्वमहंसि ॥ ३१॥
हे स्वामि ! मैं सभी साधनोंसे हीन हूँ तथा मैं तो धर्माचरण
से भी विमुख हूँ । अतः इस संसार समुद्रसे उद्धार करनेमें
आप ही समर्थ हैं ॥ ३१ ॥
मायाभ्रमणयन्त्रस्थामूर्ध्वाधोभयविह्वलम् ।
अदृष्टनिजसकेतां पाहि नाथ दयानिधे ॥ ३२॥
हे स्वामि । हे दयानिधान ! माया मोहमें फंसे रहनेसे व्याकुल,
यन्त्रस्यके समान ऊपर नीचे दोनों ओर घूमनेवाले तथा भय से
व्याकुल मुझ निरुद्देश्य चक्कर काटनेवालेकी रक्षा कीजिए ॥ ३२ ॥
अनर्थेऽर्थदृशं मूढां विश्वस्तां भयदस्थले ।
जागृतव्ये शयानां मामुद्धरस्व दयापरः ॥ ३३॥
अनर्थ परम्परामें ही दृष्टिपात करनेवाले मूढ़ और भयदायी
विषयोंमें ही विश्वास रखनेवाले और जागनेवालोंमें सोनेवाले
मेरा, हे दयावान प्रभु ! उद्धार कीजिए ॥ ३३ ॥
अतीतानागत भवसन्तानविवशान्तराम् ।
बिभेमि विमुखी भूय त्वत्तः कमललोचन ॥ ३४॥
हे कमलनयन ! मैं अतीत एवं अनागत (भूत एवं भविष्य)में
होनेवाली दुःखपरम्परामें पड़कर विवश हुआ मैं आपसे विमुख
होकर भयग्रस्त हूँ ॥ ३४ ॥
मायालवणपाथोधिपयःपानरतां हि माम् ।
त्वत्सान्निध्यसुधासिन्धुसामीप्य नय माऽचिरम् ॥ ३५॥
क्योंकि मैं मायारूपी नमकीन समुद्रके पानी को पीनेमें संलग्न
हूँ । अतः हे कृष्ण ! आप अपने सन्निध्यरूपी सुधा समुद्रके
समीप मुझे शीघ्र ही खींच लाइए ॥ ३५ ॥
त्वद्वियोगार्तिमासाद्य यज्जीवामीति लज्जयः ।
दर्शयिष्ये कथ नाथ मुखमेतद्विडम्बनम् ॥ ३६॥
आपके विरहरूप विपत्तिमें पड़ा हुआ मैं जो लज्जासे जीवित हूँ
उस विवर्ण मुख को, हे नाथ ! मैं आपको कैसे दिखाऊंगा ? यही
विडम्बना है । अतः आप स्वयं मुझे खींच लीजिए ॥ ३६ ॥
प्राणनाथ वियोगेऽपि करोमि प्राणधारम् ।
अनौचिती महत्येषा किं न लज्जयतीह माम् ॥ ३७॥
हे प्राणनाथ । वियोगमें भी मैं प्राण धारण कर रहा हूँ- यह
क्या महान अनौचित्य क्या नहीं है? मुझे तो आपके वियोगमें प्राणत्याग
कर देना ही उचित था । यह मुझे लज्जा नहीं प्रदान कर
रहा है ? ॥ ३७ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि कस्याग्रे प्रवदाम्यहम् ।
उत्पद्यन्ते विलीयन्ते वृत्तयोब्धो यथोर्मयः ॥ ३८॥
मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसके समक्ष मैं अपनी विपदा को
कहूँ ? इस प्रकार विचार समुद्रमें मेरे विचार लहरोंके समान
ऊपर उठते हैं और पुनः उसीमें विलीन हो जाते हैं ॥ ३८ ॥
अहं दुःखाकुली दीना दुःखहा न भवत्परः ।
विज्ञाय प्राणनाथेदं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३९॥
मैं दुःख परम्परासे पीड़ित हूँ, दीन हूँ, दुःखका मारा हुआ हूँ
तथा आपके परायण भी नहीं हूँ- यह सब जानकर, हे
प्राणनाथ ! आप जो चाहें वही करें ॥ ३९ ॥
ततश्च प्रणमेत्कृष्णं भूयो भूयः कृताञ्जलिः ।
इत्येतद्गुह्यमाख्यातं न वक्तव्यं गिरीन्द्रजे ॥ ४०॥
इसके बाद हाथ जोड़कर श्रीकृष्णके समक्ष बारम्बार प्रणाम
करे । हे गिरिराज हिमालयकी पुत्रि ! यह रहस्य मैंने आपसे बता
दिया है । इसे किसी (अपात्र) को कभी नहीं बताना चाहिए ॥ ४० ॥
एवं यः स्तोति देवेशि त्रिकालं विजितेन्द्रियः ।
आविर्भवति तच्चित्ते प्रेमरूपी स्वयं प्रभुः ॥ ४१॥
हे देवेशि ! इस प्रकार जो जितेन्द्रिय साधक त्रिकालमें भगवान्
चिदानन्दधन परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्णकी स्तुति करता है,
उसके (निर्मल) चित्तमें प्रेमरूपी प्रभु स्वयं आविर्भूत हो जाते
हैं ॥ ४१ ॥
इति माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे एवं ज्नानखण्डे शिवोमासंवादे
सप्तचत्वारिंशपटलं श्रीकृष्णस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
Patala 47 Verse 1 through 41
Encoded and proofread by Yogesh K Sharma yosharma at gmail.com