कालीस्तोत्रं परशुरामकृतम्
परशुराम उवाच ।
नमः शङ्करकान्तायै सारायै ते नमो नमः ।
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः ॥ १॥
नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत्कर्त्र्यै नमो नमः ।
नमोऽस्तु ते जगन्मात्रे कारणायै नमो नमः ॥ २॥
प्रसीद जगतां मातः सृष्टिसंहारकारिणि ।
त्वत्पादौ शरणं यामि प्रतिज्ञां सार्थिकां कुरु ॥ ३॥
त्वयि मे विमुखायां च को मां रक्षितुमीश्वरः ।
त्वं प्रसन्ना भव शुभे मां भक्तं भक्तवत्सले ॥ ४॥
युष्माभिः शिवलोके च मह्यं दत्तो वरः पुरा ।
तं वरं सफलं कर्तुं त्वमर्हसि वरानने ॥ ५॥
रेणुकेयस्तवं श्रुत्वा प्रसन्नाऽभवदम्बिका । var जामदग्न्यस्तवं
मा भैरित्येवमुक्त्वा तु तत्रैवान्तरधीयत ॥ ६॥
एतद् भृगुकृतं स्तोत्रं भक्तियुक्तश्च यः पठेत् ।
महाभयात्समुत्तीर्णः स भवेदेव लीलया ॥ ७॥
स पूजितश्च त्रैलोक्ये तत्रैव विजयी भवेत् ।
ज्ञानिश्रेष्ठो भवेच्चैव वैरिपक्षविमर्दकः ॥ ८॥
इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराणे गणेशखण्डे षट्त्रिंशोऽध्यायान्तर्गतम्
श्रीपरशुरामकृतं कालीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
अर्थ
परशुराम द्वारा काली की स्तुति
परशुराम बोले - आप शंकरजी की प्रियतमा पत्नी हैं, आपको
नमस्कार है । सारस्वरूपा आपको बारंबार प्रणाम है। दुर्गतिनाशिनी को मेरा
अभिवादन है । मायारूपा आपको मैं बारंबार सिर झुकाता हूँ। जगद्धात्री
को नमस्कार-नमस्कार । जगत्कर्त्री को पुनः-पुनः प्रणाम। जगज्जननी को
मेरा नमस्कार प्राप्त हो । कारणरूपा आपको बारम्बार अभिवादन है। सृष्टि
का संहार करनेवाली जगन्माता! प्रसन्न होइये । मैं आपके चरणों की शरण
ग्रहण करता हूँ, मेरी प्रतिज्ञा सफल कीजिये । मेरे प्रति आपके विमुख हो
जाने पर कौन मेरी रक्षा कर सकता है? भक्तवत्सले! शुभे! आप मुझ
भक्त पर कृपा कीजिये । सुमुखि! पहले शिवलोक में आपलोगों ने मुझे
जो वरदान दिया था, उस वर को आपको सफल करना चाहिये । परशुराम
द्वारा किये गये इस स्तवन को सुनकर अम्बिका का मन प्रसन्न हो गया
और भय मत करो यों कहकर वे वहीं अन्तर्धान हो गयीं । जो मनुष्य
भक्तिपूर्वक इस परशुरामकृत स्तोत्र का पाठ करता है, वह अनायास
ही महान् भय से छूट जाता है । वह त्रिलोकी में पूजित, त्रैलोक्यविजयी,
ज्ञानियों में श्रेष्ठ और शत्रुपक्ष का विमर्दन करनेवाला हो जाता है ।
यह स्तोत्र ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड से उद्धृत है ।
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