गङ्गाध्यानम्
श्वेतचम्पकवर्णाभां गङ्गां पापप्रणाशिनीम् ।
कृष्णविग्रहसम्भूतां कृष्णतुल्यां परां सतीम् ॥ १॥
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ।
शरत्पूर्णेन्दुशतकप्रभाजुष्टकलेवराम् ॥ २॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।
नारायणप्रियां शान्तां सत्सौभाग्यसमन्विताम् ॥ ३॥
बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुताम् ।
सिन्दूरबिन्दुललितां सार्धं चन्दनबिन्दुभिः ॥ ४॥
कस्तूरीपत्रकं गण्डे नानाचित्रसमन्वितम् ।
पक्वबिम्बसमानैक चार्वोष्ठपुटमुत्तमम् ॥ ५॥
मुक्तापङ्क्तिप्रभाजुष्टदन्तपङ्क्तिमनोहराम ।
सुचारुवक्त्रनयनां सकटाक्षमनोरमाम् ॥ ६॥
स्थलपद्माभाप्रजुष्टपादपद्मयुगन्धराम् ।
रत्नाभरणसंयुक्तं कुकुमाक्तं सयावकम् ॥ ७॥
देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणम् ।
सुरसिद्धमुनीन्द्रादिदत्तार्ध्यैस्सयुतं सदा ॥ ८॥
तपस्विमौलिनिकरभ्रमरश्रेणिसंयुतम् ।
मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां कामिनां स्वर्गभोगदम् ॥ ९॥
वरां वरेण्यां वरदां भक्तानुग्रहकातराम् ।
श्री विष्णाःपददात्री च भजे विष्णुपदी सतीम् ॥ १०॥
इति श्री ब्रह्मवैवर्तपुराणतो गङ्गाध्यानं नाम प्रथमोऽध्यायः ।
हिन्दी भावार्थ -
श्वेत चम्पा के पुष्प के समान वर्णवाली, सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने
वाली, भगवान् कृष्ण (विष्णु) के शरीर से समुत्पन्न, एवं उन्हीं के
समान भक्तजनानन्ददायिनी परम सती भगवती गंगा का (ध्यान करता
हूँ ।) अग्नि के समान परम शुद्ध रक्तवर्ण का वस्त्र धारण किए
हुए, रत्नजटित आभूषणों से विभूषित, शरत्पूर्णिमा के सो चन्द्रमा
की कान्तियों से सुशोभित शरीर वाली, मन्द मन्द मुस्कान से प्रसन्न
मुखवाली, सर्वदास्थिर रहनेवाली यौवनावस्था से सुशोभित, परम
शान्तिमयी, नारायण की प्रियतमा, परम सौभाग्यशालिनी (का ध्यान करता
हूम् ।) मनोहर केशों के भार को धारण करने वाली, मालती के पुष्पों
से सुशोभित, चन्दन बिन्दु के साथ-साथ सुन्दर सिन्दूर की बिन्दी से
अलंकृत (गंगा का ध्यान करता हूँ।) कपोल स्थल में कस्तूरी के बने
हुए पत्र एवं विविध प्रकार के चित्रों से समलंकृत,पके हुए मनोहर
बिम्ब के फल के समान निम्न होण्ठ वाली। (गंगा का ध्यान करता हूँ ।)
मोतियों की लड़ी के समान कान्तिवाले मनोहर दान्तों की पंक्तियों से मन
को हर लेने वाली, सुन्दर मुख एवं कटाक्षमय नेत्रों वाली (गंगा का
ध्यान करता हूँ ।) उनके दोनों चरण-कमल स्थल-पद्म (गुलाब)
की कान्ति के समान मनोहारी हैं; सुन्दर रत्नों के आभरण से अलंकृत
हैं; कुमकुम एवं यावक के रसों से सुशोभित हैं । देवराज इन्द्र के
शिर पर विराजमान मन्दार के मकरन्द के कणों से उस मनोहर चरण की
छवि अरुण वर्ण की हो रही हैं । सुर, सिद्ध, मुनिगण एवं महर्षियों
से दिये गए अर्घ्य-जल से वे पाद सर्वदा सुशोभित होते रहते हैं ।
तपस्वियों के शिर समूह रूप भ्रमरों की पंक्तियाँ उस चरण कमल
की चारों ओर चक्कर लगाती रहती हैं । वह मनोहर चरण मुमुक्षुओं
को मुक्ति प्रदान करने वाला है, एवं कामियों को स्वर्ग तथा भोग प्रदान
करने वाला है । परम पूजनीय, वरदान प्रदान करने वाली, भक्तों
के ऊपर अनुग्रह करने के लिए सर्वथा तत्पर रहने वाली श्री विष्णु के
चरणों में शरण देने वाली विष्णु-पाद-सम्भूत उस परम सती गंगा
की मैं भक्ति करता हूँ ॥ १-१०॥
श्री ब्रह्मवैवर्त पुराण से गंगाध्यान नामक प्रथम अध्याय समाप्त ।
Proofread by Rajesh Thyagarajan